प्रथम तरड्ग
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अरित्र
साम्बं सदाशिवं देवं तन्त्रमार्गप्रदर्शकम् । मङ्गलाय च लोकानां भक्तानां
रक्षणाय च ॥१॥
विद्याप्रदं गणपतिं सर्वप्रत्यूहनाशकम् । भक्तभीष्टप्रदातारं बुद्धिजाड्यापहारकम्
॥२॥
तथा श्रेयस्करीं शक्तिं नत्वा मन्त्रमहोदधेः । भाषाटीकां वितनुते मालवीयः
सुधाकरः ॥३॥
नारोचकीं
न वा क्लिष्टां नाव्यक्तां न च विस्तृताम् । पदाक्षरानुगां स्पष्टां भावमात्रप्रबोधिनीम्
॥४॥
लक्ष्मी
से युक्त श्रीनृसिंह भगवान् , महागणपति एवं श्रीगुरु (श्रीनृसिंहाश्रम ) को नमस्कार
कर तथा अनेक तन्त्र ग्रन्थों का आलोडन कर मन्त्र ही जिसमें महान् उदक हैं ऐसे मन्त्रमहोदधि
नामक ग्रन्थ का (मैं महीधर ) निर्माण करता हूँ ॥१॥
मन्त्रवेत्ता
ब्राह्ममुहूर्त में उठकर शिरःप्रदेश में अपने श्रीगुरु के चरनकमलों का ध्यान करे ।
फिर आवश्यक शौचादि क्रिया से निवृत्त होकर स्नान के लिए किसी नदी तट पर जाए ॥२॥
सरिता
में श्रौतविधि से स्नान कर मन्त्रस्नान करे । तदन्तर स्मृतिशास्त्रों में कही गयी विधि
के अनुसार सन्ध्योपासन करे ॥३॥
विमर्श
- स्नान तीन प्रकार के कहे गये हैं
- १ .कायिकस्नान , २ . मन्त्रस्नान तथा ३ . मानस स्नान । कायिक स्नान जल से , मन्त्रस्नान
मन्त्र को पढते हुए भस्मादि द्वारा तथा मानस स्नान गुरु के चरणकमल से निकली हुई अमृतधारा
से करना चाहिए । इसका वर्णन पूजा तरङ्ग (२१ ) में आगे करेंगे ॥३॥
द्वारपूजा
- तदनन्तर घर के दरवाजे पर आकर द्वार
की पूजा करनी चाहिए । उसकी विधि इस प्रकार है - प्रथमतः साधक द्वार की ’अस्त्र -मन्त्र
’ (अस्त्राय फट् ) से अभिमन्त्रित जल से प्रोक्षण करे । तत्पश्चात् उसके ऊपर स्थित
श्रीगणेश देवता का पूजन करना चाहिए ॥४॥
पुनः
द्वार के दक्षिण भाग में महालक्ष्मी तथा वामभाग में महासरस्वती का पूजन करे । फिर दाहिनो
ओर विघ्नेश्वर , गङ्गा एवं यमुना का पूजन करे ॥५॥
तदनन्तर
वाम भाग में क्षेत्रपाल (स्वर्ग ) सिन्धु तथा यमुना का पूजन कर दक्षिण भाग में धाता
तथा वामभाग में विधाता का पूजन करे । तदनन्तर द्वार के दक्षिण में शङ्खनिधि और वामभाग
में पद्मनिधि का पूजन कर आगे कहे जाने वाले द्वार स्थित तत्तद्देवता रुप द्वारपालों
का पूजन करे ॥६ -७॥
प्राणायाम
की विधि - इस प्रकार द्वारपूजा संपादन
कर पूजागृह में प्रवेश कर आसन पर बैठ कर गणेश , गुरु एवं इष्टदेवता को प्रणाम करना
चाहिये । बत्तीस बार प्रणव का जप करते हुए प्राणावायु को ऊपर खींच कर पूरक , चौंसठ
बार प्रणव का जप करते हुए प्राणवायु को रोक कर कुम्भक तथा सोलह बार प्रणव का जप करते
हुए प्राणवायु को छोडते हुए रेचक द्वारा प्राणायाम करे । तदनन्तर देवार्चन की योग्यता
प्राप्त करने के लिये ‘भूतशुद्धि ’ की क्रिया करे ॥६ -८॥
विमर्श
- ‘भूतशुद्धि ’ वह क्रिया है जिसके द्वारा शरीरगत पृथ्व्यादि पञ्च्यादि पञ्चतत्त्वों
को शुद्ध कर अव्यय परमात्मा के अर्चन की योग्यता प्राप्त की जाती है ॥९॥
भूतशुद्धि
- भूतशुद्धि की विधि इस प्रकार हैं
- सर्वप्रथम मूलाधार चक्र में स्थित कमलनाल तन्तु के समान एवं सूक्ष्म विद्युत प्रभा
के समान देदीप्यमान परदेवता -स्वरुप कुण्डलिनी का एकाग्रचित्त हो ध्यान करे । पुनःउस
कुण्डलिनी का मूलाधार से सुषुम्ना मार्ग द्वारा ऊपर ले जा कर हृदयकमल में स्थापित करे
। वहाँ प्रदीप शिखा के आकार वाले जीव से संयुक्त कर पुनः ब्रह्मरन्ध्र में स्थित सहस्त्रार
चक्र में ले जा कर स्थापित कर् इस प्रकार ध्यान करना चाहिए । यतः वहाँ परमात्मा परब्रह्म
का निवास है , अतः साधक को ‘हंसः आदि ’ मन्त्र का जप करते हुए जीव सहित कुण्डलिनी को
उस परमात्मा में संयुक्त कर देना चाहिए ॥१० -१२॥
इस
शरीर में पञ्चतत्त्व अपने अपने वर्ण (रंग ) आकृति (आकार ) एवं बीजाक्षर से युक्त हो
कर पैर के तलवे से ले कर ब्रह्मरन्ध्र पर्यन्त स्थित हैं । अतः उनके उन उन रंगों ,
आकृतियों एवं बीजाक्षरों का स्मरण कर भूतशुद्धि करनी चाहिए । उसका विधान इस प्रकार
है - ॥१३॥
पैर
के तलवे से ले कर जानुपर्यन्त पृथ्वी तत्त्व का स्मरण करे । इसकी आकृति चौकोर एवं वज्र
के समान है । उसका भू बीज (लं ) यह बीजाक्षर है तथा स्वर्ण के समान पीला है । इस प्रकार
साधक को भू -तत्त्व का ध्यान करना चाहिए ॥१४॥
जानु
से ले कर नाभिपर्यन्त जल तत्त्व है । जिसकी आकृति अर्धचन्द्राकार तथा उसका वर्ण श्वेत
है । इसमें दो कमल के चिन्ह हैं । इसका बीज ‘वम् ’ अक्षर है , इस प्रकार वहाँ सोम
- मण्डल का ध्यान करना चाहिए ॥१५॥
नाभि
से ले कर हृदय पर्यन्त अग्नि तत्त्व है । इसकी आकृति स्वस्तिकयुक्त त्रिकोणाकार है
। वर्ण रक्त है तथा ‘रम् ’ यह बीजाक्षर है । इस प्रकार वहाँ अग्निमण्डल का ध्यान करना
चाहिए ॥१६॥
हृदय
से ले कर भ्रूमध्य पर्यन्त वायु तत्त्व है जो गोलाकार एवं षड्बिन्दुओं से युक्त हैं
, इसका वर्ण धूम्र के समान है तथा ‘यम् ’ बीजाक्षर है । इस प्रकार वहाँ वायुमण्डल का
ध्यान करना चाहिए ॥१७॥
भ्रूमध्य
से ब्रह्मरन्ध्र पर्यन्त आकाश है जो अत्यन्त मनोहर एवं वृत्ताकार है । इसका वर्ण स्वच्छ
है । यह ‘हम् ’ बीजाक्षर से युक्त है । इस प्रका वहाँ आकाशमण्डल का ध्यान करना चाहिए
॥१८॥
विमर्श
- इस प्रकार पञ्चमहाभूत के ध्यान से
साधक को शुद्धि प्राप्त होती है ॥१८॥
पृथ्वी
आदि मण्डलों में अपने गमन एवं आदान विषयों के साध पाद , हस्त , पायु ,उपस्थ एवं वाक्
- एन कर्मेन्द्रियों का गन्ध , रस , रुप , स्पर्श एवं शब्दादि विषयों का तथा १ . नासिका
, २ . जिहवा , ३ . चक्षु , ४ . त्वक् ,एवं ५ . कर्ण -इन सभी पाँच ज्ञानेन्द्रियों का
चिन्तन करना चाहिए ॥१९ -२०॥
इन
तत्त्वों के क्रमशः १ . ब्रह्मा , २ . विष्णु , ३ . शिव , ४ . ईशान एवं , ५ . सदाशिव
देवता कहे गये हैं । इनकी १ . निवृत्ति , २ . प्रतिष्ठा , ३ . विद्या , ४ . शान्ति
एवं ५ . शान्त्यतीया -ये क्रमशः कलायें हैं तथा १ . समान , २ . उदान , ३ . व्यान ,
४ . अपान एवं ५ . प्राण इनके पञ्च वायु हैं । अतः पृथिव्यादि मण्डलों में क्रमशः इनका
भी ध्यान करना चाहिए ॥२१ -२३॥
विमर्श
- इस प्रकार से निष्कर्ष हुआ कि पृथ्वी
आदि मण्डलों में - पञ्चकर्मेन्द्रियों , पाँच विषयों , पञ्चज्ञानेन्द्रियों का चिन्तन
कर उन तत्त्वों के पाँच देवता , पाँच कलाएँ और पञ्चवायु का भी ध्यान करे ॥२१ -२३॥
इस
प्रकार पञ्चभूततत्त्वों का ध्यान कर भूमि को जल में , जल को अग्नि में , अग्नि को वायु
में , वायु को आकाश में , आकाश को अहङ्कार में , अहङ्कार को महत्तत्त्व में , महत्तत्त्व
को प्रकृति में तथा प्रकृति को माया में एवं माया को आत्मा में विलीन कर देना चाहिए
॥२४ -२५॥
इस प्रकार शुद्ध सच्चिदानन्दमय आत्मस्वरुप हो कर पापपुरुष का ध्यान करना
चाहिए । इसका स्वरुप इस प्रकार है - पापपुरुष का निवास वामकुक्षि में है वह कृष्ण वर्ण
का तथा अङ्गगुष्ठ मात्र परिणाम वाला है , उसके शिर ब्रह्महत्या है , सुवर्णस्तेय उसके
हाथ हैं , मदिरापान उसका हृदय है , गुरुतल्पगमन उसकी कटि है , उसके दोनों पैर पापपुरुषों
के संसर्ग से युक्त हैं , उपपातक उसके रोम हैं । वह १ खड्ग (अविवेक ) एवं २ चर्म
(अहङ्कार ) धारण किये हुये हैं । वह दुष्ट है तथा मुख नीचे किये रहता है , जो अत्यन्त
भयानक भी है ॥२६ -२८॥
अब
उसके भस्म करने कर उपाय कहते हैं - वायु बीज ‘यं ’ का स्मरण कर पूरक विधि से उस पापपुरुष
का शोषण करे । फिर अग्नि बीज ‘रम् ’ का जप करते हुये साधक अपने शरीर के साध उसे भस्म
कर देवे । तदनन्तर पुनः वायु बीज (यं ) का जप कर उस भस्मीभूत पापपुरुष को रेचक द्वारा
बाहर निकाल देवे ॥२९ -३०॥
तदनन्तर
बुद्धिमान साधक सुधा बीज ‘वम् ’ का जप करते हुए उस देह के भस्म को आप्लवित (आर्द्र
) करे । फिर भू बीज ‘लम् ’ इस मन्त्र का जप कर भस्म को घना सोने के अण्डे के समान कठोर
बनावे । तदनन्तर विशुद्ध दर्पण के समान स्वच्छ आकाश बीज ‘हम् ’ का जप करते हुए शिर
से ले कर पैर तक के अङ्गों का निर्माण करे ॥३१ -३२॥
फिर
चित्स्वरुप आत्मा से आकाशादि पञ्चभूतों को उत्पन्न कर ‘सोऽहम् ’ इस मन्त्र का जप कर
हृदयकमल में आत्मा को स्थापित करे । फिर उस परतत्त्व आत्मा से सुधामयी कुण्डलिनी तथा
जीव को ले कर जीव को हृदयकमल में और कुण्डलिनी को मूलाधार में स्थापित कर उनका स्मरण
करे ॥३३ -३४॥
प्राणप्रतिष्ठा
- इस प्रकार भूतशुद्धि कर उसमें पुनः
प्राणप्रतिष्ठा करे । उसके विनियोग की विधि इस प्रकार है - ॐ अस्य श्रीप्राणप्रतिष्ठामन्त्रस्य
अजेशपद्मजाऋषयः ऋग्यजुःसामानि छन्दांसि प्राणशक्तिर्देवता पाश (आं ) बीजं त्रपा (हीं
) शक्तिः क्रौं कीलकं प्राणप्रतिष्ठापने विनियोगः ॥३५ -३६॥
तदनन्तर
ऋषियों के नाम ले कर शिर में , छन्द का नाम लेकर मुख में , देवता का नाम ले कर हृदय
में , बीजाक्षर का उच्चारण कर गुह्यस्थान में और शक्ति का नाम ले कर परि में न्यास
कर फिर (वक्ष्यमाण रीति से ) षडङ्गन्यास करना चाहिये ॥३७॥
विमर्श
- ऋष्यादिन्यास - १ . अजेशपद्मजाऋषिभ्यो
नमः शिरसि , २ . ऋग्यजुःसामछन्देभ्यो नमः मुखे , ३ . प्राणशक्तिर्देवतायै नमः हृदि
, ४ . आं बीजाय नमः गुह्ये , ५ . ह्रीं शक्तये नमः पादयोः ६ .क्रौं कीलकाय नमः सर्वाङ्गे
॥३७॥
कवर्ग
एवं नभ आदि से हृदय में , चवर्ग एवं शब्दादि से शिर में , टवर्ग एवं श्रोत्रादि से
शिखा में , तवर्ग एवं वाक् आदि से कवच में , पवर्ग एवं वक्तव्यादि से नेत्र में , यवर्ग
एवं अतीन्द्रियादि से करतल में न्यास करना चाहिए । फिर अपने हृदयादि अङ्गों में इन
मन्त्रों का न्यास करना चाहिए ॥३८ -३९॥
न्यास
का प्रकार - न्यास में पहले प्रत्येक वर्ग का पञ्चम वर्ण , फिर क्रमशः प्रथम
, द्वितीय , चतुर्थ तदनन्तर तृतीय वर्ण , इन सभी का अनुस्वार सहित उच्चारण करना चाहिए
। यवर्ग में प्रथम शं यं रं वं लं इन पाँच अक्षरों का उच्चारण कर नभ (हं ), श्वेत
(षं ),तिभं (क्षं ), भृगु (सं ) एवं विमल (लं ) इन अक्षरों को सानुस्वार उच्चारण करना
चाहिए । श्लोक में नभ आदि का अर्थ नभः ‘वाय्वग्निवार्भूमि ’ है , शब्दादि का अर्थ
‘शब्दस्पर्शरुपरसगन्ध ’ है श्रोत्रादि का अर्थ ‘श्रोत्रत्वङ्नयन जिहवाघ्राण ’ हैं
, वाक् आदि का अर्थ ‘वाक्पाणि -पादपायोपस्थ ’ है , वक्तव्यादि का अर्थ ‘वक्तव्यादानगमविसर्गानन्द
’ है तथा अन्तरिन्द्रिय का अर्थ ‘बुद्धिमनोहङ्कारचित्त ’ है , इस प्रकार इन श्लोकों
से षडङ्गन्यास का प्रकार बताया गया है ॥४० -४५॥
विमर्श
- इन श्लोकिं का स्पष्टार्थ निम्नलिखित
है –
ॐ
ङं कं खं घं गं नभोवाय्वग्निवार्भूम्यात्मने हृदयाय नमः ।
ॐ
ञं चं छं झं जं शब्दस्पर्शरुपरसगन्धात्मने शिरसे स्वाहा ।
ॐ
णं टं ठं ढं डं श्रोत्रत्वङ्नयनजिहाप्राणात्मने शिखायै वषट् ।
ॐ
नं तं थं धं दं वाक्पाणिपादपायूपस्थात्मने कवचाय हुम् ।
ॐ
मं पं फं भं बं वक्तव्यादानगमनविसर्गानन्दात्मने नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ
शं यं रं वं लं हं षं क्षं लं बुद्धिमनोहंकराचित्तात्मने अस्त्राय फट् ॥४० -४५॥
षडङ्गन्यास
के पश्चात् नाभि से ले कर पैर के तलवे तक पाश बीज (आं ) का न्यास करे । हृदय से नाभि
तक शक्तिबीज (हीम् ) का न्यास करे , मस्तक से हृदय तक श्रृणि (क्रौम् ) का न्यास करे
॥४५ -४६॥
विमर्श
- तद् यथा - नाभेरारभ्य पादान्तं
पाशबीजं (आं ) न्यसामि । हृदयादारभ्य नाभ्यन्तं शक्तिबीजं (हीम् ) न्यसामि । मस्तकादारभ्य
हृदयान्तं श्रणिबीजं (क्रौं ) न्यसामि ॥४५ -४६॥
त्वक्
, असृज् , मांस मेद , अस्थि ,मज्जा एवं शुक्र शब्द के आगे ‘आत्मने नमः ’ लगाकर हृदय
पदेश में न्यास करे । उनके आदि में सानुस्वार यकारादि सात वर्णों का उच्चारण कर तथा
फिर सद्य (ओ ) से युक्त आकाश (ह ) को प्रारम्भ में उच्चारण कर ‘ओजात्मने नमः ’ ख आकाश
बीज (हं ) के आगे ‘प्राणात्मने नमः ’ लगा कर तथा भृगु (स ) के आगे ‘जीवात्मने नमः
’ लगा कर हृदय में न्यास करे । फिर यकारादि समस्त वर्णो को चन्द्र (अनुस्वार ) से भूषित
कर मूलमन्त्र से मूर्धापि चरणावधि व्यापक न्यास करके तब पीठदेवता का न्यास करे ॥४६
-४९॥
विमर्श
- यथा - ॐ यं त्वगात्मने नमः हृदि
, ॐ रं असृगात्मने नमः हृदि , ॐ लं मांसात्मने नमः हृदि , ॐ वं मेदसात्मने नमः हृदि
, ॐ शं अस्थ्यात्मने नमः हृदि , ॐ षं मज्जात्मने नमः हृदि , ॐ सं शुक्रात्मेन नमः हृदि
, ॐ हां ओजात्मने नमः हृदि , ॐ हं प्राणात्मने नमः हृदि , ॐ सं जीवात्मने नमः हृदि
। इस प्रकार उक्त मन्त्रों का उच्चारण कर हृदय में न्यास करे । तत्पश्चात् ‘ॐ यं रं
लं वं शं षं सं हं क्षं मूर्धादिचरणावधि व्यापकं करोमि ’ - पढ व्यापक न्यास करे ॥४९॥
अब पीठ देवता का न्यास कहते हैं - सानुस्वार अपने नाम के आद्यक्षर
सहित तत्तद् पीठ देवताओं का न्यास पीठ के मध्य में करना चाहिए -मण्डूक , कालाग्निरुद्र
, आधारशक्ति , कूर्म , पृथ्वी , सुधासिन्धु (क्षीरसागर ), श्वेतद्वीप , कल्पवृक्ष
, मणिमण्डप , स्वर्ण सिंहासन धर्म , ज्ञान , वैराग्य , ऐश्वर्य ,अधर्म , अज्ञान , अवैराग्य
, अवैराग्य ,अनैश्वर्य ये पीठ के देवता हैं । जिसमें धर्म से लोकर अनैश्वर्य पर्यन्त
पीठ के पाद कहे गये हैं , शेष पीठ के अङ्ग हैं पीठ के मध्य में रहने वाल अनन्त , पद्म
, आनन्द , मयकन्दक , संविन्नाल , विकारमयकेसर , प्रकृत्यात्मकपत्र , पञ्चाशद्वर्ण कर्णिका
, सूर्यमण्डल , चन्द्रमण्डल , अग्निमण्डल , सत्त्व , रजस् , तमस् ,आत्मा ,अन्तरात्मा
,परमात्मा ,ज्ञानात्मा ,मायातत्त्व ,कलातत्त्व ,विद्यातत्त्व एवं परतत्त्व - ये सभी
पीठ देवता कहे हये हैं ॥५० -५५॥
विमर्श
- न्यासविधि - यथा - पीठ के मध्य में
- मं मण्डूकाय नमः , कं कालाग्निरुद्राय नमः , आं आधारशक्तये नमः , कूं कूर्माय नमः
, पृं पृथिव्यै नमः , क्षीं क्षीरसमुद्राय नमः , श्वें श्वेतद्वीपाय नमः , कं कल्पवृक्षाय
नमः , मं मणिमण्डलाय नमः , स्वं स्वर्णसिंहासनाय नमः , इन मन्त्रों से तत्तद्देवताओं
का न्यास करना चाहिए ।
पुनः
पीठ के चारों कोणों में क्रमशः आग्नेय कोण से प्रारम्भ कर - धं धर्माय नमः , ज्ञां
ज्ञानाय नमः , वैं वैराग्याय नमः , ऐं ऐश्वर्याय नमः - इन मन्त्रों से न्यास करना चाहिए
।
पुनः
पीठ के चारों दिशाओं में पूर्व दिशा से प्रारम्भ कर - अं अधर्माय नमः , अं अज्ञानाय
नमः , अं अवैराग्याय नमः , अं अनैश्वर्याय नमः - इन मन्त्रों से तत्तद्देवताओं का
न्यास करना चाहिए ।
पुनः मध्ये में - अं अनन्ताय नमः , पं पद्माय नमः , आं आनन्दमयकन्दकाय
नमः , सं संविन्नालाय नमः , विं विकारमयकेसरेभ्यो नमः , प्रकृत्यात्मकपत्रेभ्यो नमः
, पं पञ्चाशद्वर्णकर्णिकायै नमः , सं सूर्यमण्डलाय नमः , चं चन्द्रमण्डलाय नमः , अं
अग्निमण्डलाय नमः , सं सत्त्वाय नमः , रजसे नमः कं कलातत्त्वाय नमः , विं विद्यातत्त्वाय
नमः , पं परं तत्त्वाय नमः इन मन्त्रो द्वारा तत्तद्देवताओं का न्यास करना चाहिए ॥५०
-५५॥
सभी
देवताओं के पूजन में पीठ पर उपर्युक्त देवताओं का पूजन करना चाहिए । बाह्यपूजा में
शरीर में इन देवताओं का न्यास स्थान पूजा तरङ्ग (२१ ) में आगे कहेंगे ॥५६ -५७॥
तदनन्तर
हृदयकमल में देवताओं के नामों को सानुस्वार आद्यवर्ण से युक्त आठ दलों पर , आठ पीठ
की शक्तियों का पूजन चाहिए । इसी प्रकार कर्णिका में नवीं महाशक्ति का पूजन करना चाहिए
। १ . जया , २ . विजया , ३ . अजिता , ४ . अपराजिता , ५ नित्या , ६ . विलासिनी , ७
. दोग्ध्री , ८ .अघोरा एवं ९ . मङ्गला - ये नौ पीठ की शक्तियाँ हैं । तदनन्तर पाशादि
तीन बीजाक्षर (आं ह्रीं क्रौं ) पीठाय नमः इस मन्त्र से पीठ की पूजा कर देहमय पीठ पर
, नवयौवन के गर्व से इठलाती हुई , पुष्टस्तन से सुशोभित प्राणशक्ति का ध्यान करना चाहिए
॥५७ -६०॥
विमर्श
- यथा - हृदयकमल में १ . जं जयायै नमः , २ . विं विजयायै नमः , ३ . अं अजितायै
नमः , ४ . अं अपराजितायै नमः , ५ . निं नित्यायै नमः , ६ . विं विलासिन्यै नमः , ७
. दों दोर्ग्ध्र्यै नमः , ८ . अं अघोरायै नमः - इन मन्त्रों से पीठ की आठ शक्तियों
का पूज कर कर्णिका में ‘ मं मङ्गलायै नमः ’ से पूजन करना चाहिए तदनन्तर ‘आं ह्रीं क्रौं
पीठाय नमः ’ इस मन्त्र से पीठ का पूजन कर देहमय पीठ पर प्राणशक्ति का ध्यान करना चाहिए
॥५७ -६०॥
अब ध्यान के लिये प्राणशक्ति का स्वरुप कहते हैं –
रक्तमय
समुद्र में नौका पर लाल कमल के ऊपर बैठी बायें हाथ में पाश , धनुष , एवं शूलधारण किये
हूये तथा दाहिने में कपाल , अंकुश एवं बाण धारण किये हुये तीन नेत्रों वाली तथा छः
भुजाओं वाली प्राणशक्ति का ध्यान करना चाहिए ॥६१॥
अष्टदल
के भीतर षट्कोण में स्थित प्राणशक्ति का इस प्रकार ध्यान कर पूर्व , नैऋत्य एवं वायुकोण
में क्रमशः ब्रह्मा , विष्णु एवं शिव का तथा आग्नेय , पश्चिम एवं ईशान में क्रमशः वाणी
, लक्ष्मी एवं पार्वती का पूजन करना चाहिए । केशरों में - सं संविन्नालाय नमः विं विकारमयकेसरेभ्यो
नमः , सं सूर्यमण्डलाय नमः चं चन्द्रमण्डलाय नमः , अं अग्निमण्डलाय नमः , मां मायातत्त्वाय
नमः , कं कलातत्त्वाय नमः (देखिये श्लोक ५ ) का पूजन कर पत्रों में अष्टमातृकाओं का
पूजन करना चाहिए ।
१ . ब्राह्यी , २ . माहेश्वरी , ३ . कौमारी , ४ . वैष्णवी , ५ .
वाराही , ६ . इन्द्राणी , ७ . चामुण्डा एवां ८ . महालक्ष्मी ये आठ विश्व की मातायें
कही गई हैं । देवपूजा के कार्य में पूज्य एवं पूजक के मध्य में पूर्व दिशा होती है
॥६२ -६५॥
विमर्श
- षट्कोण एवं अष्टदल में निर्दिष्ट दिशा में उनके अधिपति तत्तद्देवताओं के
नाम के मन्त्रों से उनका पूजन करना चाहिए ॥६२ -६५॥
तदनन्तर
अपनी अपनी दिशाओं में इन्द्र आदि दिक्पालों का पूजन करना चाहिए । १ . इन्द्र , २ .
अग्नि , ३ . यम , ४ . निऋति , ५ . वरुण , ६ . वायु , ७ . सोम , ८ . ईशान , ९ . अनन्त
एवं १० . ब्रह्मा - ये दश दिक्पलाल हैं । १ . वज्र , २ . शक्ति , ३ . दण्ड , ४ . खड्ग
, ५ . पाश , ६ . अंकुश , ७ . गदा , ८ . त्रिशूल , ९ . चक्र एवं १० . पद्म - इन दिक्पालों
के क्रमशः दश आयुध हैं । अतः दशों दिशाओं में इन्द्रादि एवं दश दिक्पालों का तथा उनके
आयुधों का भी पूजन करना चाहिए । इस प्रकार पाँच आवरणों वाली (द्र .६१ -८ ) प्राण शक्ति
का पूजन कर हृदय पर हाथ रख कर वक्ष्यमाण मन्त्र का तीन बार जप करना चाहिए ॥६६ -६९॥
विमर्श
- प्रयोग - पूर्व ई इन्द्राय नमः , आग्नेयाम् आं अग्नये नमः , दक्षिणस्यां यं
यमाय नमः , आदि क्रमपूर्वक पूर्व आदि दिशाओं के दस दिक्पालों का पूजन कर पुनः उसी क्रम
से वं वज्राय नमः शं शक्तये नमः , दं दण्डाय नमः इत्यादि मन्त्रोम से उन उन दिक्पालों
के आयुधों का भी पूजन करना चाहिए ॥६६ -६९॥
प्राणप्रतिष्ठा मन्त्रोद्धार –
अब
ग्रन्धकार प्राणप्रतिष्ठा मन्त्र का उद्धार कह रहे हैं , - जिसका ज्ञान साधक को सुख
देने वाला है । सर्वप्रथम पाश (आं ),माया (हीम् ),सृणि (क्रौम् ), इन बीजाक्षरों का
उच्चारण कर सप्ताक्षर मन्त्र - ॐ क्षं सं हं सः हीम् अन्त में अजपा (हंसः ) का उच्चारण
करना चाहिए । तदनन्तर ‘मम प्राणाः इह प्राणाः मम जीव इह स्थितः मम सर्वेंद्रियाणि इह
स्थितानि मम वाङ्मनश्चक्षुः श्रोत्रघ्राणप्राणाः इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा
’ का उच्चारण कर अन्त में सप्ताक्षर मन्त्र - ॐ क्षं सं हंसः ह्रीं ॐ - का पुनः उच्चारण
करणा चाहिए । प्राणप्रतिष्ठा के लिये यही मन्त्र कहा गया हैं । ‘मम ’ इत्यादि पद के
पहले पाशादि (आं ह्रीं क्रौं ) का उच्चारण करना चाहिए । यन्त्र एवं प्रतिमा आदि में
प्राणप्रतिष्ठा करते समय मम के स्थान में यन्त्र अथवा प्रतिमा के देवता नाम ले कर उस
आगे देवतायाः ऐसा षष्ठयन्त पद का प्रयोग करना चाहिए । जैसे - शिवदेवतायाः दुर्गादेवतायाः
आदि ॥७० -७५॥
विमर्श
- यहाँ मम पद के साथ प्राणप्रतिष्ठा का मन्त्र उद्धृत करते हैं -
‘ॐ आं ह्रीं क्रौं यं रं लं वं शं षं सं हों ॐ क्षं सं हंसः ह्रीं ॐ हंसः ’ पूर्वोक्त
रीति (द्र . १ .६० .६१ .) से प्राण शक्ति का ध्यान करे । ‘ॐ आं ह्रीं क्रौं यं रं लं
वं शं षं सं हों ॐ क्षं सं हंसः ह्रीं ॐ हंसः मम प्राणाः इह प्राणाः ’ - मन्त्र का
उच्चारणा कर प्राण की प्रतिष्ठा करे ।
इसी
प्रकर ‘ॐ आं ’ से ले कर ‘ह्रीं ॐ हंसः ’ पर्यन्त मन्त्र पढ कर ‘मम जीव इह स्थितः ’
पढ कर जीवात्मा की हृदय में प्रतिष्ठा करे । पुनः ‘ॐ आं ’ से लेकर ‘ह्री ॐ हंसः ’ पर्यन्त
मन्त्र पढ कर ‘मम सर्वेन्द्रियाणि इह स्थितानि ’ से समस्त इन्द्रियों की स्थापना करे
। इसी प्रकार पूर्वोक्त मन्त्र के उच्चारण के पश्चात् ‘मम वाङ्मनश्चचक्षुः श्रोत्रघ्राणप्राणाः
इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठस्तु स्वाहा औं क्षं सं हंसः ह्रीं ॐ ’ इतना उच्चारण कर समस्त
ज्ञानेन्द्रियों , मन एवं प्राण की भी प्रतिष्ठो करे । यह क्रिया तीन बार करनी चाहिए
॥७० -७५॥
प्राण
प्रतिष्ठा के सप्ताक्षर मन्त्र का उद्धार कहते हैं - सानुस्वार मेरु (क्षं ) हंस (सं
) आकाश (हं ) के साधु भृगु (सः ) एवं माया बीज (ह्रीं ) इन सबको ॐ से सम्पुटित करने
पर सप्ताक्षर मन्त्र बन जाता है ॥७६॥
विमर्श
- मन्त्र का उद्धार इस प्रकार हैं - ॐ क्षं सं हंसः ह्रीं ॐ
॥७६॥
पूर्वोक्त विधि से प्राणप्रतिष्ठा के पश्चात् अब मातृकान्यास कहते हैं
- अकार से ले कर क्षकार पर्यन्त समस्त वर्णों की ‘मातृका ’ संज्ञा है । इस मातृका न्यास
मन्त्र के प्रजापति रुषि , गायत्री छन्द , सरस्वती देवता और हल वर्ण बीज कहे गए हैं
तथा स्वर शक्ति कही गई है । स्वाभीष्ट के लिए विनियोग का विधान कहा गया है ॥७७ -७८॥
साधक्र
शिर , मुख एवं हृदयादि में क्रमशः ऋषि , छन्द तथा देवतादि के द्वारा ऋष्यादि न्यास
करे । यह न्यास क्लीव वणो (ऋ ऋ लृ लृ ) को छोडकर मात्र हस्व एवं दीर्घ वर्णों से संपुटित
होना चाहिए । इसी प्रकार हस्व एवं दीर्घ वर्णों से संपुटित सानुस्वार कवर्ग , चवर्ग
, तवर्ग , पवर्ग , यवर्ग से करन्यास एवं षडङ्गन्यास करे ।
विमर्श
- मातृका न्यास का विनियोग इस प्रकार
है - ॐ अस्य श्रीमातृकान्यासमन्त्रस्य ब्रह्माऋषिः गायत्रीछन्दः सरस्वतीदेवता हलो बीजानि
स्वराः शक्तयः (क्षं कीलकं ) अखिलाप्तये मातृकान्यासे विनियोगः ।
ऋष्यादि न्यास का प्रकार –
१
. ॐ अं प्रजापतये नमः आं शिरसि ,
२
. ॐ इं गायत्रीछन्दसे नमः ईं मुखे ,
३
. ॐ उं सरस्वतीदेवतायै नमः ऊं हृदि ,
४
. ॐ एं हल्बीजेभ्यो नमः ऐं गुह्ये ,
५
. ॐ ओं स्वरशक्तिभ्यो नमः औं पादयोः ,
६
. ॐ अं क्षं कीलकाय नमः अः सर्वाङ्गे
करन्यास एवं अङ्गन्यास –
१ . ॐ अं कं खं गं घं ङं आं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
२ . ॐ इं चं छं जं झं ञं ईं तर्जनीभ्यां नमः ।
३ . ॐ उं टं ठं डं ढं णं ऊं मध्यमाध्यां नमः ।
४ . ॐ एं तं थं दं धं नं ऐं अनामिकाभ्यां नमः ।
५ . ॐ ओं पं फं बं भं मं औं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
६ . ॐ क्षं यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं अः करतलपृष्ठाभ्यां नमः ।
इसी
प्रकार उपरोक्त मन्त्रों से क्रमशः हृदय , शिर , शिखा , कवच , नेत्र का स्पर्श करे
। फिर अन्तिम मन्त्र के आगे ‘अस्त्राय फट् ’ कह कर ताली बजावे ॥७७ -८०॥
अब सरस्वती का ध्यान कहते हैं –
सोलह
स्वरों एवं चौंतीस हलों इस प्रकर कुल पचास वर्णो से जिनके शरीर की रचना है , जो मस्तक
पर चन्द्रकला धारण की हैं , जो कुमुद के समान अत्यन्त शुभ्र हैं , जिनके दाहिने हाथों
में १ . वरदमुद्रा , २ . अक्षमाला तथा बायें हाथों में ३ . अभयमुद्रा एवं , ४ . पुस्तक
सुशोभित है , ऐसे समस्त वाणी को धारण करने वाली तीन नेत्रों वाली सरस्वती देवी का मैं
ध्यान करता हूँ ॥८१॥
पीठशक्त्यर्चन
, पीठपूजा एवं आवर्ण पूजा - इस प्रकार
सरस्वती देवे के ध्यान के पश्चात् पूर्वोक्त पीठ देवताओं (द्र०१ . ५० -५५ ) का एवं
नौ पीठ शक्तियों का पूजन करना चाहिए । तदनन्तर सरस्वती का पूजन करना चाहिए । १ . मेधा
, २ . प्रज्ञा , ३ . प्रभा , ४ . विद्या , ५ . श्री , ६ . धृति , ७ . स्मृति , ८ .
बुद्धि , एवं ९ . विद्येश्वरी ये मातृकापीठ की नौ शक्तियाँ कही गई हैं ॥८२ -८३॥
अब आसनपूजा
का मन्त्र कहते
हैं - वियत् (ह ) भृगु (स ) के आगे मनु (औ ), पश्चात् विसर्ग लगा कर तदनन्तर ‘मातृकायोगपीठाय
नमः ’ लगा कर उस मन्त्र से आसन का पूजन करना चाहिए । (इसका स्वरुप इस प्रकार है - हसौः
मातृकायोगपीठाय नमः । ) तदनन्तर मूल मन्त्र से मूर्ति की कल्पना कर वाणी देवी (सरस्वती
) की पूजा करेनी चाहिए । प्रथमावरण में
अङ्गों का , द्वितीयावरण में
दो दो स्वरों का , तृतीय
आवरण में
कवर्गादि अष्टवर्गों का , एवं चतुर्थं आवरण में
दो वर्गशक्तियों का पूजन करना चाहिए । व्यापनी , पालिनी , पावनी , क्लेदिनी , धारिणी
, मालिनी , हंसिनी तता शखिनी - ये वर्ग की शक्तियों के नाम हैं । इसके बाद में पञ्चम
आवरण में
ब्राह्यी आदि अष्टमातृकायें , षष्ठावरण में
इन्द्रादिदेवगणसप्तमावरण में उनके वज्र आदि आयुधों के पूजन कर
देवेशी का पूजन करना चाहिए , तदनन्तर अपने शरीर में वर्णा का न्यास करना चाहिए ॥८४
-८८॥
अब
शरीर में मातृका
न्यास की विधि कहते
हैं - ललाट , मुखवृत्त , दोनों नेत्र , दोनों
कान , दोनों नासापुट , दोनों गण्डस्थल , दोनों होठ , दोनों दन्तपङिक्स , शिर एवं मुख
में स्वरों का न्यास करना चाहिए । दोनों बाहुओं के मूल , कूर्पर , मणिबन्ध अङ्गुलि
मूल एवं अङ्गुल्यभाग में क्रमशः कवर्ग एवं चवर्ग का न्यास करना चाहिए । टवर्ग एवं
तवर्ग का न्यास दोनों पैरों के मूल , जानु , गुल्फ , पादाङ्गुलिमूल तथा पादाङ्गुलि
के अग्रभाग में , पवर्ग का न्यास दोंनो पार्श्व , पीठ , नाभि एवं उदर में , यवर्ग के
चार वर्ण य र ल व का न्यास ह्रुदय , दोंनो कन्धे , एवं ककुद में तथा श , ष , स ह का
न्यास दोंनो हाथ एवं दोंनो पैरों में , ल और क्ष का न्यास उदर एं मुख में करना चाहिए
॥८९ -९१॥
विमर्श
- न्यस प्रयोग विधि - ‘तत्र प्रणपूर्वकाः
माया लक्ष्मी वाग्भवाद्यो नमः इत्यन्ते न्यस्तव्याः ’ इस नियम के अनुसार सानुस्वार
वर्णो के आदि में प्रणव , माया बीज , लक्ष्मीबीज एवं वाग्बीज लगा कर तथा अन्त में नमः
लगा कर शरीर में समस्त वर्णों का न्यास करना चाहिए । यहाँ मूलार्थानुसार न्यासविधि
इस प्रकार है –
ॐ
अं नमः ललाटे , ॐ आं नमः मुखव्रुत्ते ,
ॐ
इं नमः दक्षनेत्रे , ॐ ईं नमः वामनेत्रे ,
ॐ
उं नमः दक्षकर्णे , ॐ ऊं नमः वामकर्णे ,
ॐ
ऋं नमः दक्षनासापुटे , ॐ ऋ नमः वामनासापुटे ,
ॐ
लृं नमः दक्षगण्डे , ॐ लृं नमः वामगण्डे ,
ॐ
एं नमः ऊर्ध्वोष्ठे , ॐ ऐं नमः अधरोष्ठे ,
ॐ
ओं नमः ऊर्ध्वदन्तपङ्क्तौ , ॐ औं नमः अधःदन्तपङ्क्तौ ,
ॐ
अं नमः मूर्ध्नि , ॐ अः नमः मुखे ।
यहाँ
तक स्वरों का न्यास कहा गया । अब हल वर्णौं का न्यास कहते हैं
ॐ
कं नमः दक्षबाहुमूले , ॐ खं नमः दक्षबाहुकूर्परे
ॐ
गं नमः दक्षबाहुमणिबन्धे , ॐ घं नमः दक्षबाहुहस्ताङ्गुलिमूले ,
ॐ
ङं नमः दक्षबाहवङ्गुल्यग्रे , ॐ चं नमः वामबाहूमूले ,
ॐ
छं नमः वामबाहुकूर्परे , ॐ जं नमः वामबाहुमणिबन्धे ,
ॐ
झं नमः वामवाहवङ्गुलिमूले , ॐ ञं नमः वामवाहवङ्गुल्यग्रे ,
ॐ
टं नमः दक्षिणपादमूले , ॐ ठं नमः दक्षिणपादजानूनि ,
ॐ
डं नमः दक्षिणगुल्फे , ॐ ढं नमः दक्षिणपादाङ्गुलिमूले ,
ॐ
णं नमः दक्षिण पादाङ्गुल्यग्रे , ॐ तं नमः वामपादगुल्फे ,
ॐ
थं नमः वामपादजानूनि , ॐ दं नमः वामपादगुल्फे ,
ॐ
धं नमः वामपादाङ्गुलिमूले ॐ ॐ नं नमः वामपादाङ्गुल्यग्रे ,
ॐ
पं नमः दक्षिणपार्श्वे , ॐ फं नमः वामपार्श्वे ,
ॐ
बं नमः पृष्ठे , ॐ भं नमः नाभौ ,
ॐ
मं नमः उदरे , ॐ यं त्वगात्मने नमः हृदि ,
ॐ
रं असृगात्मने नमः दक्षांसे ॐ लं मांसात्मने नमः ककुदि ,
ॐ
वं मेदसात्मने नमः वामांसे ,
ॐ
शं अस्थ्यात्मने नमः हृदयादि दक्षहस्तान्तम् ,
ॐ
षं मज्जात्मने नमः हृदयादि दक्षपादान्तम्
ॐ
सं शुक्रात्मने नमः हृदयादि दक्षपादान्तम्
ॐ
हं आत्मने नमः हृदयादिवामपादान्तम्
ॐ
ळं परमात्मने नमः जठरे , ॐ क्षं प्राणात्मने नमः मुखे ,
यहाँ
तक सृष्टि न्यास कहा गया ॥८९ -९१॥
इस
प्रकार हृदय से ले कर दोनों हाथ दोंनों पैर जठर एवं मुख में सृष्टि न्यास कर स्थिति
न्यास करना चाहिए ॥९२॥
अब स्थिति न्यास की विधि कहते हैं - स्थिति न्यास के ऋषि , छन्द आदि
( द्र० १ . ७ ) पूर्वोक्त हैं । विश्वपालिनी देवता हैं , साधक को एकाग्रचित्त से अपने
प्रियतम के गोद मेम बैठी हुई इस देवता का ध्यान करना चाहिए । इनके दाहिने हाथों में
वरमुद्रा , अक्षसूत्र , दिव्यमाला तथा बायें हाथों में मृगशावक , विद्या , वर्णमाला
है , इस प्रकार की विश्वपालिनी सरस्वती देवी का ध्यान करना चाहिए ॥९३ - ९४॥
विमर्श
- स्थिति न्यास के विनियोग विधि इस
प्रकार है - ‘ॐ अस्य स्थितिमातृका -न्यासस्य प्रजपतिऋषिः गायत्रीछन्दः विश्वपालिनी
देवता हलो बीजानि स्वरा शक्तयः क्षं कीलकम् अभीष्टप्राप्तये स्थितिमातृकान्यासे विनियोगः
’ ॥९३ -०४॥
ध्यान
करने के पश्चात् डकारादिवर्णों से दक्षिणगुल्फ से वामजानुपर्यन्त अङ्गों में न्यास
करना चाहिए । इसी को स्थिति न्यास कहते हैं ॥९५॥
विमर्श
- यथा ॐ डं नमः दक्षिण गुल्फे , ॐ ढं नमः दक्षपादाङ्गुलिमूले , ॐ णं नमः दक्षिणपादाङ्गुल्यग्रे
, ॐ तं नमः वामपादपूले , ॐ थं नमः वामपादजानूनि , इस क्रम से दक्षिण गुल्फ से लेकर
वामजानुपर्यन्त स्थिति न्यास कहलाता है ॥९५॥
उक्त
प्रकार से सृष्टि न्यास करने के पश्चात् संहार न्यास करना चाहिए । इस संहार न्यास के
ऋषि एवं छन्द (द्र० १ .७८ ) पूर्वोक्त हैं तथा शत्रुप्रणाशिनी शारदा देवी इसकी देवता
मानी गई हैं ॥९६॥
इन ध्यान का प्रकार प्रकार है - जो रक्त कमल पर विराजमान
हैं , जिनके दाहिने में अक्षमाला , परशु एवं बायें हाथों में मृगशावक तथा विद्या हैं
, चन्द्रकला से सुशोभित स्तनभार से झुकी तथा तीन नेत्रों वाली उन शारदा का मैं ध्यान
करता हूँ ॥९७॥
विमर्श
- संहारन्यास के विनियोग की विधि –
अस्य
श्रीसंहारमातृकान्यास्य प्रजापतिऋषिः गायत्रीछन्दः शत्रुसंहारिणी शारदा देवता हलो बीजानि
स्वरा शक्तयः क्षं कीलकं ममाभीष्टसिद्धयर्थे न्यासे विनियोगः ॥९७॥
विनियोग
तथा ध्यान के अनन्तर क्षकारादि वर्णो से अकार पर्यन्त वर्णों का विलोम रीति से ललाटदि
स्थानों मे न्यास करना चाहिए ॥९८॥
सृष्टिन्यास में
विसर्गयुक्त वर्णो से , स्थितिन्यास में विसर्ग और अनुस्वार युक्त दोनों प्रकार के
वर्णों से तथा संहारन्यास में मात्र अनुस्वार युक्त वर्णों से ही न्यास करना चाहिए
। अङ्ग पूजन की प्रक्रिया में वर्ण के आदि में प्रणव तथा अन्त में नमः लगा कर न्यास
करने की विधि है ॥९८ -९९॥
विमर्श
- यथा ॐ अं नमः ॐ आं नमः इत्यादि ॥९८
-९९॥
संहार
न्यास के पश्चात् पुनः प्रयत्नपूर्वक सृष्टिन्यास तथा स्थितिन्यास करना चाहिए । मातृका
न्यास का विशेष विवरण पूजा तरङ्ग (द्रष्टव्य २१वाँ तरङ्ग ) में कहा जायगा ॥१००॥
वहीं
पर हम मन्त्रस्नान आदि की विधि का भी दिग्दर्शन कराएँगे । इस प्रकार बुद्धिमान् पुरुष
सरस्वती की आराधना करने के पश्चात् ही अपने इष्टदेव के मन्त्रों की आराधना करे । विष्णु
, शिव , गणेश , सूर्य एवं दुर्गा - पञ्चायतन के यही पाँच देवता हैं । सिद्धि चाहने
वाले पुरुष को उन उन मन्त्रों से शास्त्र में कही गई विधि के अनुसार इनकी आराधना करनी
चाहिए ॥१०१ -१०२॥
पुरश्चरण के योग्य भूमि –
प्रारम्भ
में इष्टदेव को अपने वश में करने के लिए किसी तीर्थ या निर्जन वन में किसी पवित्र भूमि
का निश्चय कर पुरश्चरण की क्रिया प्रारम्भ करनी चाहिए । पुरश्चरण के लिए अभीष्टभूमि
को नव भागों में विभक्त करना चाहिए । पूर्व से ले कर उत्तर तक सात दिशाओं में सात वर्ग
, ईशान कोण में ल क्ष वर्ण तथा मध्य में स्वरों को लिखना चाहिए । पुरश्चरण स्थान के
नाम का आद्य अक्षर जिस कोष्ठक में हो , स्थान के उसी भाग में बैठ कर मन्त्र का जप चाहिए
, अन्यत्र दुःखदायक स्थान पर नहीं ॥१०३ -१०५॥
विमर्श
- सुविधा के लिए उसका स्वरुप प्रदर्शित
करते हैं –
मान
लीजिये किसी साधक को पुरश्चरण के लिए काशी मे किसी निर्जन स्थान को चुनना है । तब उपर्युक्त
विधि से बनाये गये नौ भाग वाले कोष्ठक में काशी का आद्य अक्षर ‘क ’ पूर्वभागे में पडता
है । अतः काशी के पूर्वभाग में किसी निर्जन स्थान को चुन कर मन्त्र का जप करना चाहिए
॥१०३ -१०५॥
पुरश्चरण धर्मो का कथन –
अब
पुरश्चरण क्रिया में ग्रन्थकार जप का विधान कहते
हैं - बुद्धिमान् साधक प्रातःकाल से ले कर मध्याहनपर्यन्तं उपांशु अथवा मानस
जप करे । तीनों काल स्नान करे । तेल उबटन आदि न लगावे । व्यग्रता , आलस्य
, थूकना , क्रोध , पैर फैलाना , अन्यों से संभाषण एवं अन्य स्त्रियों का तथा चाण्डालादि
का दर्शन जप काल में वर्जित करे । दूसरे की निन्दा , ताम्बूल चर्वण , दिन में शयन
, प्रतिग्रह , नृत्य , गीत एवं कुटिलता न करे। पृथ्वी में शयन करे । ब्रह्मचर्य के
नियमों का पालन करे । त्रिकाल देवार्चन करे । नैमित्तिक कार्यो में देवार्चन एवं देवस्तुति
करे और अपने इष्टदेवता में विश्वास रख्खे । प्रतिदिन एक समान संख्या में जप करे । न्यूनाधिक
संख्या में नहीं । इस प्रकार निश्चित जप की संख्या समाप्त करने के पश्चात् ही दशांश
से हवन करे ॥१०६ -११०॥
विमर्श
- उपांशु जप - जिहवा और ओष्ठ का संचालन
, पूर्वक स्वयं सुनाई पडने वाले शब्दों के उच्चारण पूर्वक जो जप किया जाता है वह ‘उपांशु
’ है । जिसमें ओठ और जीभ का भी संचालन न हो मात्र मन्त्र , मन्त्रार्थ तथा देवता का
स्मरण कर जो जप किया जाता है , वह ‘मानस जप ’ है । इसके अतिरिक्त वाचिक जप भी होता
है जिसका पुरश्चरण में निषेध है ।
हविष्यान्न
- जौ , मूंग , चावल , गौ का दूध ,
दही , घी , कक्खन , शक्कर , तिल , खोआ , नारियल , केला , फल , मेवा , आँवला , सेन्धा
नमक आदि हविष्यान्न कहे गये हैं । साधक को इन्हीं का भोजन मात्र एक बार करना चाहिए
। भोजन दोष से मन्त्रसिद्धि में बाधा होती है ॥१०६ -११०॥
तत्तत्कल्पोक्त
ग्रन्थों में कहे गये हविष्य द्रव्यों से दशांश हवन का विधान कहा गया है । मन्त्रवेत्ता
को सर्वप्रथम मूल मन्त्र से प्राणायाम एवं षडङ्गन्यास कर कुण्ड या स्थण्डिल (वेदी
) पर चारों संस्कार करना चाहिए । प्रथम मूलमन्त्र पढ कर देखे , फिर ‘अस्त्राय फट्
’ इस मन्त्र से प्रोक्षण करे । तदनन्तर कुशों से ताडन कर ‘हुम् ’ इस मन्त्र से मुष्टिका
द्वारा उसका सेचन करे ॥१११ -११२॥
विमर्श
- ईक्षण , प्रोक्षण , ताडन एवं सेचन
- ये चारों कुण्ड के या स्थण्डिल के चार संस्कार होते हैं ॥१११ -११२॥
तदन्तर
वेदी पर यन्त्र का लेखन इस प्रकार करे - त्रिकोण , उसके बाद षट्कोण , अष्टदल एवं चतुष्कोण
यन्त्र बना कर उसके मध्य में ‘ॐ ह्री ॐ ’ लिख कर पीठ पूजन करना चाहिए । फिर मण्डूक
से ले कर परतत्त्व पर्यन्त तथा जया आदि पीठशक्तियों (द्र०१ .५० -६० ) का पूजन करना
चाहिए
॥११३ -११४॥
फिर
‘ॐ ह्रीं वागीशिवागीश्वरयोर्योगपीठात्मने नमः ’ इस मन्त्र से उन्हें आसन देना चाहिए
। फिर तार (ॐ ), माया (हीम ,) अर्थात् ॐ ह्रीं इस मन्त्र से गन्धादि उपचारों द्वारा
उनका पूजन करना चाहिए । यदि विष्णु देवता का होम करना हो तो ‘ॐ ह्रीं लक्ष्मी नारायणभ्यां
नमः ’ इस मन्त्र द्वारा लक्ष्मीनारायण का पूजन करना चाहिए ॥११५ -११६॥
विमर्श
- १ . गन्ध , २ . पुष्प , ३ . धूप
, ४ .दीप एवं ५ . नैवेद्य - इन पाँच उपचारों को गन्धादि उपचार कहा जाता है ॥११५ -११६॥
अब अग्निस्थापन का प्रकार कहते हैं - सूर्यकान्तमणि द्वारा
, अरणिमन्थन द्वारा अथवा श्रोत्रिय के घर (अग्निशाला ) से अग्नि को किसी पात्र में
रख कर और उसे दूसरे पात्र से ढक कर लाना चाहिए ॥११७॥
‘
अस्त्राय फट् ’ मन्त्र का उच्चारण कर अग्नि पात्र ग्रहण करे । ‘ हुम् ’ मन्त्र का उच्चारण
कर उस पात्र को खोले । पुनः अस्त्र मन्त्र ( अस्त्राय फट ) का उच्चारण कर उसका कुछ
अंश मांसभोजी अग्नि के लिए नैऋत्यकोण में फेंक देना चाहिए ॥११८॥
पुनः
मूलमन्त्र का उच्चारण कर उस अग्निपात्र को अपने सामने रक्खे , तथा उसे स्वल्प रुप से
सिञ्चित करके उसका ईक्षण आदि पूर्वोक्त चार संस्कार (द्र०१ .११२ ) संपन्न करना चाहिए
॥११९॥
फिर
परमात्मा रुप अनल (अग्निर्वै रुद्रः ) तथा जाठराग्नि एवं संमुख रक्खी अग्नि में एकरुपता
की भावना करती हुए ‘रम् ’ बीज से उसमें चेतनला लानी चाहिए ॥१२०॥
फिर
मन्त्रवेत्ता ब्राह्मण तार मन्त्र (ॐ ) से अग्नि को अभिमन्त्रित कर सुधाबीज (वँ ) से
धेनु मुद्रा प्रदर्शित करते हुए उसका अमृतीकरण करे तथा अस्त्राय फट् मन्त्र से उसे
संरक्षित रखे ॥१२१॥
तदनन्तर
कवच (हुम् ) मन्त्र पढते हुए अवगुण्ठन मुद्रा प्रदर्शित कर उसे अवगुण्ठित कर प्रणव
का तीन बार उच्चारण करते हुए उस अग्नि को कुण्ड अथवा वेदी पर तीन बार घुमाना चाहिए
॥१२२॥
तत्पश्चात्
घृटनों के बल पृथ्वी पर बैठ कर वक्ष्यामाण नवार्ण मन्त्र का उच्चारण कर शय्या पर स्थित
ऋतुस्नाता , नीलकमलधीरिणी अग्निदेव के द्वारा संभोग की जाती हुई अग्नि - पत्नी स्वाहा
का स्मरण कर उसके योनिमण्डल स्थान में शिव के वीर्य की भावना करते हुए उस अग्नि को
अपने सम्मुख स्थापित करना चाहिए ॥१२३ -१२४॥
विमर्श
- धेनुमुद्रा - अन्योन्याभिमुखौ श्लिष्टौ
कनिष्ठानामिका पुनः ।
तथा
तु तर्जनीमध्या धेनुमुद्रा प्रकीर्तिता ।
दोनों
हाथों की कनिष्ठा एवं अनामिका अङ्गुलियों को उसी प्रकार तर्जनी और मध्यमा अङ्गुलियों
को परस्पर मिला देने से ‘धेनुमुद्रा ’ होती है ।
अवगुण्ठन
मुद्रा - सव्यहस्तकृता मुष्टिः दीर्घाधोमुखतर्जनी
।
अवगुण्ठनमुद्रेयाभितो
भ्रामिता भवेत् ॥
दाहिने
हाथ की मुट्टी बाँध कर तर्जनी एवं मध्यमा को अधोमुख चारोम ओर घुमाने से अवगुठन मुद्रा
होती है ॥१२३ -१२४॥
अग्निस्थापन
मन्त्र - रेफ , अर्धेश = ऊ , इन्द्रु
= अनुस्वार से युक्त गगन (ह ) अर्थात् हूँ , तदनन्तर वहिन ‘चै ’, तदनन्तर ‘तन्याय
’ तदनन्तर हृदय = ‘नमः ’ का उच्चारण करने से नवार्ण होता है । यह मन्त्र अग्निस्थापन
में प्रयुक्त होता है ॥१२५॥
विमर्शे
- मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है -
हूं वहिनचैतन्याय नमः ॥१२५॥
तदनन्तर
उक्त दोनों देव एवं देवियों को आचमन दे कर वक्ष्यमाण चौबीस अक्षरात्मक मन्त्र का जप
करते हुये कण्डा , आदि से अग्नि को प्रज्वलित करना चाहिए ॥१२६॥
अब चतुर्विंशत्यक्षर मन्त्र का स्वरुप कहते हैं –
सर्वप्रथम
चित्पिङ्गल ’ शब्द , तदनन्तर दो बार ‘हन ’ शब्द , तत्पश्चात् दो बार ‘दह ’ शब्द , फिर
दो बार ‘पच ’ शब्द और अन्त में ‘सर्वज्ञा ज्ञापय स्वाहा ’ लगाने से चतुर्विशति अक्षर
का मन्त्र बन जाता है ॥१२७॥
विमर्श
- इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है
- ‘चित्पिङ्ग्ल हन हन दह दह पच पच सर्वज्ञाज्ञापय स्वाहा ’ ॥१२७॥
तदनन्तर
आसन से उठकर हाथ जोडकर ज्वालिनी मुद्रा प्रदर्शित कर आगे कहे जाने वाले श्लोक रुप मन्त्र
से अग्नि का उपस्थापन करें ॥१२८॥
विमर्श
- दोनों हाथ के मणिबन्ध स्थान को एक
में मिलाकर अङ्गुलियों को दोनों हाथ की कनिष्ठा तथा अङ्गुष्ठा को परस्पर एक में मिलाने
से ज्वालिनीमुद्रा हो जाती है ॥१२९॥
अब
अग्निं प्रज्वलितं . . . विश्वतोमुखम् आदि श्लोक रुप मन्त्र से अग्नि का उपस्थापन कहते
हैं । सुवर्ण वर्ण के समान अमल एवं देदीप्यमान , विश्वतोमुख , जातवेद तथा हुताशन नाम
वाले प्रज्वलित अग्नि की मै वन्दा करता हूँ ॥१२९॥
इसके
अनन्तर अग्निमन्त्र का न्यास करना चाहिए । उसकी विधि कह रहे हैं सर्वप्रथम वैश्वानर
, इसके बाद जातवेद , फिर इहावह तत्पश्चात् लोहिताक्ष फिर सर्वकर्माणि तदनन्तर साधय
और अन्त में स्वाहा लगाने से २६ अक्षरों का अग्निमन्त्र बनता है ॥१३० -१३१॥
विमर्श
- इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है
- वैश्वानरजातवेद इहावह लोहिताक्ष सर्वकर्माणि साधय स्वाहा ॥१३० -१३१॥
अब
अग्निमन्त्र का विनियोग कहते हैं - इस मन्त्र भृगु ऋषि हैं , गायत्री छन्द है तथा पावक
इसके देवता हैं , रं बीज है और स्वाहा शक्ति है । इसका विनियोग हवन कार्य में किया
जाता है ॥१३२॥
अब
सप्तजिहवामन्त्र एवं उनका कहते हैं - लिङ्ग , गुदा , शिर , मुख , नासिका , आँख एवं
सर्वाङ्ग में अपने अपने बीजमन्त्रों के साथ नमः लगाकर प्रत्येक अग्नि जिहवा नाम के
आगे चतुर्थी एक वचन से न्यास करना चाहिए । हिरण्या गगना , रक्ता , कृष्णा , सुप्रभा
, बहुरुपा एवं अति रक्ता - ये सात अग्नि जिहवाओं के नाम हैं ॥ १३३ -१३४॥
दीपिका
(ऊ )अनल (र ) वायु (य ) इन तीनों को एक में मिलाकर अर्थात् ‘य्रू ’ के आदि में सकरादि
सात वर्णो को विलोम रुप से (स् ष श व् ल् र् य् ) एक एक में मिलाने से अग्निजिहवा
के बीज मन्त्र बन जाते हैं ॥१३५॥
विमर्श
- जैसे - स्र्यू , ष्र्यू , श्र्यू
, व्य्रू , ल्र्यू , र्य्रू , य्य्रू ये सप्त जिहवाओं के क्रमशः बीज मन्त्र हैं ।
प्रयोग विधि - ॐ स्यूँ हिरण्यायै नमः
लिङ्गे , ॐ ष्र्यूं गगनायै नमः पायौ ,
ॐ
श्र्यूँ रक्तायै नमः शिरसि , ॐ व्र्यूं कृष्णायै नमः वक्त्रे ,
ॐ
ल्र्यूँ सुप्रभायै नमः नासिकायाम् , ॐ र्य्रूं अति रक्तायै नमः नेत्रे ,
ॐ
य्य्रूँ बहुरुपायै नमः सर्वाङे ।
टिप्पणी
- इस न्यास के क्रम में बहुरुपा एवं
अतिरिक्ता में व्यत्क्रम हुआ हैं , जो वक्ष्यमाण १३७ श्लोक के अनुरुप है । वहाँ नेत्र
में अति रक्ता का तथा सर्वाङ्ग में बहुरुपा का न्यास कहा गया है ॥१३५॥
अब
उपर्युक्त सात जिहवाओं के देवताओं द्वारा न्यास कहते हैं - सुर , पितर , गन्धर्व ,
यक्ष , नाग , पिशाच एवं राक्षस एन जिहवओं के अधिदेवता कहे गये हैं । उनका भी क्रमशः
उक्त अङ्गो में न्यास में वह व्युत्क्रम हो जाता है ॥ इसीलिए नेत्र मं प्रथम अति रक्ता
का न्यास , तदनन्तर सर्वाङ्ग में बहुरुपा का न्यास प्रदर्शित किया गया है (द्र १ .१३४
) ॥१३६ -१३७॥
विमर्श
- प्रयोग विधि - ॐ सुरेभ्यो नमः लिङ्गे
, ॐ पितृभ्यो नमः पायौ ,
ॐ
गन्धर्वेभ्यो नमः , मूर्ध्नि , ॐ यक्षेभ्यो नमः मुखे ,
ॐ
नागेभ्यो नमः नासिकायाम् , ॐ पिशाचेभ्यो नमः नेत्रे ,
ॐ
राक्षसेभ्यो नमः सर्वाङे ॥१३६ - १३७॥
अब षडङ्गन्यास कहते हैं –
ॐ
सहस्रार्चिषै हृदयाय नमः , ॐ स्वस्तिपूर्णाय शिरसे स्वाहा ,
ॐ
उत्तिष्ठपुरुषाय शिखायै वषट् , ॐ धूमव्यापिनिए कवचाय हुम् ,
ॐ
सप्तजिहवाय नेत्रत्रयाय वौषट् ॐ धनुर्धराय अस्त्राय फट्
इस
प्रकार षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥१३८ -१३९॥
शिर
, वामस्कन्ध , वाम पार्श्व , वाम कटि , लिङ्ग पुनः दक्षिण कटि , दक्षिणपार्श्व दक्षिण
स्कन्ध इन अङ्गो में अग्नि की आठ मूर्तियों से न्यास करना चाहिए ॥१४०॥
प्रथम
प्रणव (ॐ ), इसके अनन्तर ‘अग्नये ’ इसके बाद प्रत्येक मूर्ति नाम में चतुर्थी , तदनन्तर
, ‘नमः ’ पद से उक्त स्थानों (द्र०१ .१४० ) में न्यास करना चाहिए ।१ .जातवेदाः , २
. सप्तजिहव , ३ . हव्यवाहन , ४ . अश्वोदरज , ५ . वैश्वानर , ६ . कौमार - तेजस , ७
. विश्वमुख तथा ८ . देवमुख - ये अग्नि की आठ मूर्तियों के नाम हैं ॥१४१ -१४२॥
विमर्श
- प्रयोगविधि - यथा - ॐ अग्नये जातवेदसे
नमः मूर्ध्नि
ॐ
अग्नये सप्तजिहवाय नमः वामांसे , ॐ अग्नये हव्यवाहनाय नमः वामपार्श्वे ,
ॐ
अग्नये अश्वोदरजाय नमः वामकटौ , ॐ अग्नये वैश्वानराय नमः लिङ्गे ,
ॐ
अग्नये कौमारतेजसे नमः दक्षकटौ , ॐ अग्नये विश्वमुखाय नमः दशपार्श्वे ,
ॐ
अग्नये देवमुखाय नमः दक्षांसे ॥१४१ -१४२॥
पीठ
देवता एवं शक्तियों का न्यास - इसके
बाद अपने शरीर में मण्डूक से लेकर अग्निमण्डल पर्यन्त अग्नीपीठ के देवाताओं को (द्र०
१ .५० -५६ )) न्यास करना चाहिए । पीता , श्वेता , अरुणा , कृष्णा ध्रूम्रा , तीव्रा
, स्फुलिङ्गनी , रुचिरा एवं ज्वालिनी ये अग्निपीठ की शक्तियाँ हैं ॥१४३ -१४४॥
‘
ॐ रं वहन्यासनाय नमः ’ यह पीठ का मन्त्र है इस प्रकार पीठ पर्यन्त समस्त न्यास कर अपने
शरीर में अग्नि का ध्यान करना चाहिए ॥१४५॥
अग्नि
का ध्यान - तीन नेत्रों वाले , रक्तवर्ण
शरीर वाले , शुभ्र वस्त्र से युक्त , सुवर्ण माला धारण किए हुये , दाहिने हाथों में
वरदमुद्रा एव्म स्वस्तिक , तथा बायें हाथों में अभयमुद्रा एवं शक्ति धारण किए हुये
, आभूषणों से सुशोभित कमलासन पर बैठे हुये अग्निदेव का मैम ध्यान करता हूँ ॥१४६॥
इस
प्रकार अग्निदेव का ध्यान कर विधिवत् सर्वोपचारों से मानस पूजन करना चाहिए । फिर जल
से कुण्ड अथवा स्थण्डिल का परिषिञ्चन करना चाहिए ॥१४७॥
तदनन्तर
पूर्व एवं उत्तराग्रभाग वाले कुशाओं से उसका पूर्व दिशा के क्रम से परिस्तरण करना चाहिए
। पुनः पलाश एवं विल्ववृक्ष की शाखाओं से पश्चिम , दक्षिण एवं उत्तर में क्रमशः तीन
परिधि बनाकर उस पर ब्रह्मा , विष्णु एवं शिव का पूजन करना चाहिए । अग्नि में उनके पीठस्थ
देवताओं का पूजन कर अपने हृदय में अग्निदेव का आवाहन करना चाहिए ॥१४८ -१४९॥
फिर
व्रती पुरश्चरणकर्ता गन्धादि पूजनोपचारों से अग्निदेव का पूजन करें । षट्कोण में एवं
मध्य में अग्नि की सप्तजिहवा (द्र० १ .१३४ ) का पूजन करना चाहिए । उसकी विधि इस प्रकार
है - ईशान से लेकर ऊर्ध्वाधः वायव्य पर्यन्त षट्कोणों में हिरण्य से लेकर अति रक्ता
तक ६ अग्निजिहवाओं का तथा मध्य में बहुरुपिणी नामक अग्नि जिहवा का पूजन करना चाहिए
॥१५० -१५१॥
केसरों
में अङ्गपूजा , अष्टदलों में अष्टमूर्तियों की पूजा (द्र० १ . १४१ -१४२ ) तथा दलों
के अन्त में अष्टमातृकाओं की पूजा (द्र० ५ . ३९०४० ) और दलान्त के आगे अष्ट भैरवों
की पूजा करनी चाहिए ॥१५२॥
भूपुर
में इन्द्रादि देवों की तथा उनके वज्रादि आयुधों की पूजा करनी चाहिए । इस प्रकार सप्तावरण
दे देवताओं के साथ -साथ अग्निदेव का यजन करना चाहिए ॥१५३॥
१
. असिताङ्ग , २ . रुद्र , ३ . चण्ड , ४ . क्रोध , ५ . उन्मत्त , ६ . कपाली , ७ . भीषण
और ८ . संहार - ये अष्ट भैरवों के नाम हैं ॥१५४॥
अब पात्रासादन की विधि कहते हैं - अग्नि के वाम भाग में कुशाओं
को फैला कर उस पर प्रणीता एव्म प्रोक्षणीपात्र , आज्यपात्र , स्रुवा एवं स्रुची आदि
यज्ञ पात्र अधोमुख स्थापित करना चाहिए । उसी के साथ होमार्थ द्रव्य घृत , कुशा , पलाश
की पञ्च समिधायें एवं अन्य उपयोगी वस्तुयें भी रखनी चाहिए ॥१५५ -१५६॥
तदनन्तर
पवित्री का निर्माण कर मूलमन्त्र द्वारा पवित्र जल से उन वस्तुओं का प्रोक्षण करना
चाहिए । तदनन्तर सभी पात्रों को सीधे रख कर प्रणीता पात्र में जल भरना चाहिए । फिर
तीर्थ मन्त्र –
गङ्गे
च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।
नर्मदे
सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ॥
इस
मन्त्र को पढते हुए अंकुश मुद्रा द्वारा उस जले में विद्वान् साधक को तीर्थो का आवाहन
करना चाहिए । दो अक्षत (सम्पूर्ण रुप वाले ) कुशाओं को उसमें छोडकर जल का उत्पवन करना
चाहिए । तदनन्तर प्रणीतापात्र को अग्नि के उत्तर भाग में रख कर उसका जल प्रोक्षणी पात्र
में डालना चाहिए । फिर उस प्रोक्षणी के पवित्र जल से समस्त हवनीय पदार्थो का प्रोक्षण
करना चाहिए ॥१५७ -१५९॥
अब ब्रह्मदेव के आवाहन एवं पूजन की विधि कहते हैं - अग्नि के दक्षिण में पीठ निर्माण
कर उस पर मूलमन्त्र , गायत्रीमन्त्र से अथवा हृदय मन्त्र (ॐ नमः ) से उस पर पर ब्रह्मदेव
का आवाहन करना चाहिए ॥१६०॥
अणिमादि
आठ सिद्धियाँ ब्रह्मपीठ की देवता हैं । तार (ॐ ) और हृद् (नमः ) तदनन्तर ब्रह्मपद
में चतुर्थी लगाकर ‘ॐ नमो ब्रह्मणे ’ इस मन्त्र से उनकी पूजा करनी चाहिए ॥१६१॥
विमर्श
- प्रयोग विधि - अणिमायै नमः इत्यादि
सिद्धियों के नाम मन्त्र से आठों सिद्धियों का आवाहन पूजन कर पीठ निर्माण करें । फिर
‘ॐ नमो ब्रह्मणे ’ इस मन्त्र से उनकी पूजा करे ॥१६० -१६१॥
स्रुव
एवं सुचि के संस्कार की विधि कहते हैं
- दोनों हाथों में स्रुवा स्रुचि लेकर अधोमुखे कर तीन बार उन्हें अग्नि पार तपाना चाहिए
। फिर उन दोनों को बायें हात में रखकर दाहिने हाथ से कुशा लेकर उनका मार्जन करना चाहिए
। तदनन्तर प्रणीता के जल से सिञ्चन कर पुनः उन्हें पूर्ववत् तीन बार तपाकर , अग्नि
के दाहिनी ओर स्थापित करना चाहिए । मार्जन कुशाओं को अग्नि में डाल देना चाहिए । तदनन्तर
उन पर तीन -तीन शक्तियों का न्यास करे ॥१६२ -१६३॥
इच्छा
ज्ञान एवं क्रिया रुपा शक्तियों के आगे चतुर्थ्यन्त विभक्ति लगाकर उसमेम नम्ह जोडे
। आदि में क्रमशः आ ई ऊ के सहित सानुस्वार आकाश (ह ) लगा कर शक्तियों से स्रुव एवं
सुचि के मूल , मध्य एव अन्त में इस प्रकार न्यास करे ॥१६४॥
विमर्श
- तद् यथा - १ ॐ हां इच्छात्मने स्रुवमूले
न्यसामि , २ . ॐ ह्रीं ज्ञानात्मने नमः स्रुवमध्ये न्यसामि , ३ . ॐ हूं क्रियात्मने
स्रुवाग्रे न्यसामि । इसी प्रकार सुचि में भी उपर्युक्त तीनों शक्तियं द्वारा न्यास
करना चाहिए ॥१६४॥
पुनः
स्रुचि के हृदय में शक्ति तथा स्रुव में शिव का न्यास कर तीन रक्षा सूत्रों से उन्हें
बाँधकर पुष्पादि से पूजाकर उन्हें कुशाओं पर अग्नि के दाहिनी ओर स्थापित करना चाहिए
॥१६५॥
विमर्श
- न्यासविधि - स्रुचि हृदये शक्ति न्यसामि
, स्रुवोपरि सम्भुं न्यसामि । यहाँ तक स्रुवा तथा स्रुचि का संस्कार कहा गया हैं ॥१६६॥
अब आज्य एवं आज्यथाली के संस्कार की विधि कहते हैं –
‘
अस्त्राय फट् ’ इस मन्त्र से प्रोक्षित आज्यस्थाली में आज्य को उडेलना चाहिए । फिर
ईक्षण , प्रोक्षण , ताडन एवं सेचन आदि चार संस्कार से सुसंस्कृत कर धेनुमुद्रा प्रदर्शित
करते हुये मूलमन्त्र से उसका अमृतीकरण करे । तदनन्तर वक्ष्यमाण छः संस्कार करना चाहिए
॥१६६ - १६७॥
विमर्श
- १ . अग्नि संस्थापन , २ . तापन ,
३ . अभिद्योतन , ४ . सेचन , ५ . उत्पवन तथा ६ . संप्लवन - ये छः संस्कार आज्य स्थाली
के होते हैं जिसका क्रमशः वर्णन आगे (द्र० १ . १६९ -७३ ) करेगें ॥१६६ -१६७॥
कुण्ड
से निकाली गई अग्नि पर उस आज्य युक्त स्थाली को स्थापित करे - इसे अग्नि संस्थापन कहते हैं । फिर ‘ॐ नमः ’ मन्त्र से उसे तपावे
- इसे तापन कहते हैं । फिर दो कुशाओं को जला कर उसे
घी में डाल देवें ॐ तदनन्तर ‘ॐ नमः ’ मन्त्र से अग्नि में उन दोनों कुशाओं को डाल देना
चाहिए ॥१६८ -१६९॥
फिर
जलती हुई उन कुशाओं को ‘हुम् ’ मन्त्र पढ कर घी के चारोम ओर घुमा देना चाहिए - इसे अभिद्योतन कहते हैं । पुनः घी में तीन कुशा डुबोकर
‘अस्त्रोय फट् ’ इस मन्त्र से जलाकर आज्यस्थाली में डाल देनी चाहिए । पुनः अङ्गार को
उसी कुण्ड में डाल देना चाहिए । तदनन्तर साधक को जल का स्पर्श करना चाहिए ॥१७० -१७१॥
पुनः
अनामिका और अंगुष्ठ इन दो अंगुलियों से दो कुशा लेकर ‘अस्त्राय फट् ’ इस मन्त्र से
घी को ३ बार ऊपर की ओर उछालना चाहिए - इसेउत्पवन कहते हैं ॥१७२॥
‘
ॐ नमः ’ इस मन्त्र से उस आज्य को तीन बार अपने सम्मुख उच्छालने का नाम संप्लवन है । नीराजनादि संस्कारों में अग्नि में
दर्भ को डाल देना चाहिए ॥१७३॥
ग्रन्थि
युक्त दो कुशाओं को घी में डाल देना चाहिए । फिर वाम एवं दक्षिण दोनों प्रकर के स्वरों
का ध्यान कर ईडा , पिङ्गला तथा सुषुम्ना एन तीनों नाडियों का ध्यान करे । साधक दक्षिण
, वाम एवं मध्य भाग में ‘ॐ नमः ’ मन्त्र से घी लेकर ‘ॐ अग्नये स्वाहा ’ ‘ॐ सोमाय स्वाहा
’ इन दो मन्त्रों से अग्नि के दीनों नेत्रों में तथा ‘ॐ अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा ’ इस
मन्त्र से उनके तृतीय नेत्र में आहुति देवे ॥१७४ -१७५॥
आहुति
से शेष भाग का प्रणीत में डाल देना चाहिए , फिर ‘ॐ नमः ’ मन्त्र से दाहिनी ओर से घी
लेकर ‘ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा ’ मन्त्र से एक आहुति अग्निदेव के मुख में देवे
। ऐसा करने से उनके नेत्र उद्घाटन हो जाता है ॥१७६ -१७७॥
नृसिंह
को छोडकर विष्णुके मन्त्रों से दोनों नेत्रों में दो आहुत देनी चाहिए तथा नृसिंह एवं
अन्य देवताओं के मन्त्र के दशांश हवन में अग्नि के तीनों नेत्रोम में आहुतियाँ देनी
चाहिए ॥१७७ -१७८॥
महाव्याह्रतियों
से पृथक् पृथक् (यथा ॐ भूः स्वाहा , ॐ भुवः स्वाहा , ॐ स्वःस्वाहा तदनन्तर ॐ भूर्भुवः
स्वः स्वाहा ) ये चार आहुतियाँ देनी चाहिए । फिर अग्निमन्त्र (ॐ वैश्वानर जातवेद इहावह
लोहिताक्ष सर्वकर्माणि साधय स्वाहा ) से तीन आहुति प्रदान करे । फिर घी की आठ आहुतियों
से क्रमशः एक -एक आहुति से अग्नि का एक -एक संस्कार करना चाहिए ॥१७८ -१७९॥
अब अग्निं के छह संस्कार कहते हैं - सर्वप्रथम ‘ॐ अस्याग्नेः गर्भाधानं
संस्कारं करोमि स्वाहा ’ इस प्रकार मन्त्र से १ . गर्भाधान संस्कार करे । इसी प्रकार
२ . पुंसवन , ३ . सीमान्तोन्नयन , ४ . जातकर्म तथा ५ . नालच्छेदन में क्रमशः उक्त अग्निमन्त्र
पढकर पाँच पलाश की समिधाओं की एक -एक के क्रम से अग्नि में आहुति देवें ॥१८० -१८१॥
तदनन्तर
अग्निदेवता का ६ . नामकरण इस प्रकार करें । यदि गणेश मन्त्र की आहुति देनी हो तो गणेशाग्नि
, राम और कृष्ण की आहुति देनी हो तो रामाग्नि एवं ‘कृष्णाग्नि ’ ऐसा नामकरण ’ करें
। एक प्रकार अग्नि के नामकरण के पश्चात् इनके माता पिता वागीशी एवं वागीश को अपने हृदय
में स्थापित करे ॥१८२॥
तदनन्तर
अन्नप्राशन , चौल ,म उपनयन एव विवाह संस्कार भी उक्त प्रकार के संकल्प से एक -एक आहुति
देते हुये सम्पन्न करना चाहिए । शुभ कार्यो में विवाह पर्यन्त ही संस्कार किए हैं
, किन्तु क्रूर कर्मों में मृत्यु पर्यन्त संस्कार करने की विधि है ॥१८३॥
तदनन्दर
अग्नि की जिहवाओं (द्र० १ .१३४ ) एवं अग्नि की ही मूर्तियों को पूर्वोक्त (द्र १ .१४२
) मन्त्रों से प्रत्येक में चतुर्थी विभक्ति लगाकर अन्त में स्वाहा पद का उच्चारण कर
एक -एक आहुति प्रदान करें । (यथा - हिरण्यायै स्वाहा , गगनायै स्वाहा आदि। ) फिर इन्द्रादि
देवों के लिए तथा उनके आयुधों के लिए चतुर्थ्यन्त नाम मन्त्रों के आगे स्वाहा लगाकर
आहुति प्रदान करें । (यथा - इन्द्राय स्वाहा , वज्राय स्वाहा आदि ) ॥१८४॥
तदनन्तर
स्रुवा से स्रुचि में चार बार घी डालकर स्रुवा से स्रचि को ढककर खडे हो कर उन्हें दोनों
हाथों से पकडकर नाभि के आगे कर उस पर पुष्प चढाना चाहिए । फिर उनका मूल अपने बायें
स्तन के पास लाकर अग्निमन्त्र से (यथा -वैश्वानर जातवेद एहा वह लोहिताक्ष सर्वकर्माणि
साधय स्वाहा वौषट् ) संपत्ति प्राप्ति के लिए साधक जागरुक होकर एक आहुति प्रदान करे
॥१८५ -१८७॥
तदनन्तर
महागणपति मन्त्र के दस विभाग कर प्रत्येक भाग से एक -एक आहुति देनी चाहिए । तदनन्तर
गणपति के समस्त मन्त्र को चार बार पढकर चार घृत की आहुतियाँ प्रदान करनी चाहिए । महागणपति
मन्त्र के सर्वप्रथम छः बीजों स छः आहुति तदनन्तर ५ , ५ , ७ एवं ५ अक्षरों के मन्त्रों
से एक -एक आहुति देने का विधान है ॥१८७ -१८९॥
महागणपति
मन्त्र इस प्रकार है - तारा (ॐ ), लक्ष्मी
(श्रीं ), गिरि सुता (ह्रीं ), काम (क्लीं ), भू (ग्लौं ), गणनायक (गं ) इसके बाद गणपति
का चतुर्थ्यन्त (गणपतये ) फिर ‘वर ’ और ‘वरद ’ (वर वरद ), तदनन्तर ‘सर्वजन ’ फिर ‘मे
वश ’ तदनन्तर ‘मानय ’, तदनन्तर ‘स्वाहा ’ लगाने से अथाइस अक्षर का मन्त्र बन जाता है
। इस प्रकार अग्नि का संस्कार कर देव - पीठ की पूजा करनी चाहिए ॥१८९ -१९१॥
विमर्श
- महागणपति का मन्त्र इस प्रकार है
- ‘ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गणपतये वर वरद सर्वजनं मे वश मानय स्वाहा ’ । हवन
विधि - साधक को दस भागों में इस प्रकर
हवन करना चाहिए - यथा –
१
- ॐ स्वाहा ,
२
- ॐ श्री स्वाहा ,
३
- ॐ श्रीं ह्रीं स्वाहा ,
४
- ॐ श्री ह्री क्लीं स्वाहा ,
५
- ॐ श्री ह्री क्लीं ग्लौं स्वाहा ,
६
- ॐ श्री ह्री क्लीं ग्लौं गं स्वाहा ,
७
- ॐ श्री ह्री क्ली ग्लौं गं गणपतये स्वाहा ,
८
- ॐ श्री ह्री क्ली ग्लौं गं गणपतये वर वरद स्वाहा ,
९
- ॐ श्री ह्री क्लीं ग्लौं गं गणपतये वर वरद सर्वजनं मे वश स्वाहा ,
१०
- ॐ श्री ह्री क्लीं ग्लौं गं गणपतये वर वरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा ,
इन
दस मन्त्रों से एक - एक आहुति प्रदान करनी चाहिए । फिर सम्पूर्ण उपर्युक्त २८ मन्त्राक्षरों
से घी की चार आहुति देनी चाहिए ॥१८७ -१९१॥
सर्वप्रथम
आवाहनादि मुद्रा प्रदर्शित कर पीठ इष्टदेव का आवाहन करना चाहिए । तदनन्तर अग्नि एवं
इष्टदेव के मुख में मूल मन्त्र से पच्चिस संख्यक घी की आहुती प्रदान करनी चाहिए । ऐसा
करने से अग्नि के मुख का एवं देवता के मुख का एकीकरण हो जाता है ॥१९२ -१९३॥
विमर्श
- इष्ट देव के आवाहन में साधक निम्न
मुद्राओं का प्रदर्शन करे - १ आवाहिनी , २ . स्थापनी , ३ . सन्निधान , ४ .सन्निरोध
, ५ . सम्मुखीकरण , ६ . सकलीकरण , ७ . अवगुष्ठन , ८ . अमृतीकरण और ९ . परमीकरण । इनका
स्वरुप इस प्रकार है –
१
. आवाहनी मुद्रा - "सम्यक् सम्पूजितैः
पुष्पैः कराभ्यां कल्पिताञ्जलिः । आवाहनी समाख्याता मुद्रदेशिक सत्तमैः । अनामामूलं
संलग्नाङ्गगुष्ठग्राञ्जलिरीरिता ॥
ॐ पुष्पे पुष्पे महापुष्पे सुपुष्पे पुष्पसम्भवे पुष्पं च यवकीर्ण हुं फट् स्वाहा
- इस मन्त्र से संशोधित पुष्पों को लेकर दोनों हाथों की अञ्जलि बनाने को आवाहनी मुद्रा
कहते हैं ।
२
. स्थापनी मुद्रा - "अधोमुखी कृता
सैव स्थापनीति निगद्यते । " आवाहनी मुद्रा को अधोमुख करने से स्थापनी मुद्रा बन
जाती है ।
३
. सन्निधान मुद्र - "आश्लिष्टमुष्टियुगला
प्रोन्नताङ्गष्ठयुमका । सन्निधाने समुच्छिष्टा मुद्रयं तन्त्रेवेधिभिः ॥ " अंगूठों
को ऊपर उठाकर दोनों मुट्टियों को परस्पर मिलाने से सन्निधान मुद्रा बनती है ।
४
. सन्निरोध मुद्रा - "अङ्गगुष्ठगार्भिणी
सैव सन्निरोधे समीरिता । अङ्गूठों को भीतर कर दोनों मुट्टियों को परस्पर मिलाने से
सन्निरोध मुद्रा बनती है ।
५
. सम्मुखीकरण मुद्रा - "बद्धाञ्जलि
हृदि प्रोक्ता सम्मुखीकरणे बुधैः । " हृदय प्रदेश में अञ्जलि बनाने को सम्मुखीकर
मुद्रा कहते हैं ।
६
. सकलीकरण मुद्रा - "देवाङ्गगेषु
षडङ्गानां न्यासः स्यात्सकलीकृतिः । " देवता के अङ्गों पर षडङ्गान्यास करना सकलीकरण
कहलाता है ।
७
. अवगुण्ठन मुद्रा - "सव्यहस्तकृता
मुष्टिः दीर्घाधोमुख तर्जनी । अवगुण्ठमुद्रयमाभितो भ्रामिता भवेत् । दाहिने हाथ की
मुट्टी बनाकर मध्यमा एवं तर्जनी को अधोमुख कर चारों ओर घुमाने से अवगुण्ठन मुद्रा बनती
है ।
८
. अमृतीकरण के लिए धेनुमुद्रा - "
अन्योन्याभिमुखौ श्लिष्टौ कनिष्ठानामिका पुनः । तथा तु तर्जनीभ्या धेनुमुद्रा प्रकीर्तिता
॥ "
दोनों
हाथों की कनिष्ठा एवं अनामिका को तथा मध्यमा को एक दूसरे से मिलाने पर धेनु मुद्रा
बनती है ।
९
. परमीकरण के लिए महामुद्रा –
अन्योन्य
ग्रथिताङ्गुष्ठौ प्रसारितकराङ्गुलिः । महामुद्रेयमुदिता परमीकरणे बुधैः ॥
अंगूठों
को परस्पर ग्रथित कर अङ्गुलियां फैलाने से महामुद्रा बनती है । इसे परमीकरण मुद्रा
कहते हैं ॥१९२ -१९३॥
पश्चात्
अग्नि एव इष्टदेव के नाडीसंधान के लिए मूलमन्त्र से ग्यारह आहुति प्रदान करनी चाहिए
॥१९४॥
पुनः
इष्टदेव के आवरण देवताओं को १ -१ आहुति देनी चाहिए (आवरण देवता द्र० १ ५० -५५ ) फिर
मूलमन्त्र से १० संख्यक घृत की आहुति देनी चाहिए ॥१६५॥
तदनन्तर
तत्तत् कल्पों में प्रतिपादित तत्तद्देव विशेषों के हवि से जप का दशांश होम कर होम
का समापन करें । तदनन्तर एकाग्रचित्त से पूर्णाहुति करें ॥१९६॥
अब पूर्णाहुति का प्रकार प्रस्तुत करते हैं –
विद्वान्
साधक होमावशिष्ट घृत से स्रुचि को भर कर उसमेम पुष्प एवं फल रखकर स्रुवा से ढक कर खडा
हो मूलमन्त्र के अन्त मं वौषट् लगाकर अग्नि में पूर्णाहुति करें , तथा शेष होमद्रव्य
से आवरण देवताओं को पृथक -पृथक् आहुति प्रदान करें ॥१९७ -९८॥
फिर
अपने हृदय में इष्टदेव का विसर्जन कर अग्नि की सात जिहवाओं एवं आठ मूर्तियों को आहुतियाँ
प्रदान करे । तदनन्तर महाव्याहृतियों से हवन कर प्रोक्षणी के जल से अग्नि का प्रोक्षण
(सिञ्चन ) करे ॥१९९॥
तदनन्तर
- ‘भो भो वहने महाशक्ते सर्वकर्मप्रसाधक ।
कम्रान्तरेऽपि
संप्राप्ते सान्निध्यं कुरु सादरम् ’॥
इस
मन्त्र से अग्निदेव की प्रार्थना कर प्रणाम करणे के पश्चात् अपने हृदय में उनका विसर्जन
करें ॥२०० -२०१॥
पवित्री
बनाये गये कुशाओं को अग्नि में प्रक्षिप्त कर प्रणीता का जल पृथ्वी पर गिरा देवें ।
तदनन्तर ब्रह्मदेव का विसर्जन कर पारिधि बनाये गये कुशाओं को भी अग्नि में पक्षिप्त
कर देना चाहिए । इस प्रकार हो समाप्त कर जल में इष्ट देवता का तपर्ण करें ॥२०१ -२०२॥
अब तर्पण अभिषेक एवं ब्राह्मण भोजन की विधि कहते हैं - जल में देवता का आवाहन कर होम
संख्या का दशांश तर्पण तर्पण का दशांश मार्जन (अभिषेक ) करना चाहिए । मूलमन्त्र के
बाद द्वितीयान्त देव नाम , तदनन्तर ‘तर्पयामि नमः ’ लगाकर तर्पण करना चाहिए । इसी प्रकर
अभिषेक में मूलमन्त्र के बाद द्वितीयान्त देव नाम लगाकर अन्त में ‘ऋषि सिञ्चामि ’ लगाकर
अभिषेक करना चाहिए ॥२०३ -२०४॥
विमर्श
- किसी भी अनुष्ठान में साधक को चाहिए
कि वह मन्त्र की जप संख्या जितनी हो उसके दसवें हिस्से से अर्थात् दस माला का दसवाँ
हिस्सा एक माला से हवन करे और हवन के दसवें से तर्पण करे तथा दसवें हिस्से से मार्जन
(अभिषेक ) करे और उसके दसवें हिस्से से ब्राह्मण भोजन की संख्या निश्चित करे । जैसे
गणपति मन्त्र के एक लाख जप के पुरश्चरण में हवन की संख्या दस हजार और तर्पण की संख्या
एक हजार एवं अभिषेक की संख्या एक सौ तथा ब्राह्मण भोजन की संख्या दस होनी चाहिए ।
तर्पण
विधि - तर्पण करते समय साधक मूलमन्त्र
के बाद देवता क द्वितीयान्त नाम तथा अन्त में ‘तर्पयामि नमः ’ कहते हुए तर्पण करे ।
जैसे उच्छिष्ट गणपति के मन्त्र में तर्पण इस प्रकार होगा - ‘ॐ हस्ति पिशाचि लिखे स्वहा
उच्छिष्टगणपतिं तर्पयामि नमः ।
अभिषेक
विधि - अभिषेक करते समय साधक मूलमन्त्र
के बाद देवता का द्वितीयान्त नाम तथा अन्त में ‘अभिषिञ्चामि कहते हुए अभिषेक करे ।
जैसे उच्छिष्ट गणपति मन्त्र के पुरश्चरण में अभिषेक इस प्रकार होगा - ‘ॐ हस्ति पिशाचि
लिखे स्वाहा उच्छिष्ट गणपतिभिषिञ्चामि ’ ॥२०३ -२०४॥
तदनन्तर
विविध प्रकार के पक्वान्नों आदि से श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए । अपने
इष्टदेव के रुप में आगत उ ब्राह्मणों का पूजन कर उन्हें दक्षिणा देनी चाहिए क्योंकि
ब्राह्मणों की आराधना से अनुष्ठान में होने वाली न्यूनता दूर हो जाता है । इससे देवता
प्रसन्न हो जाते हैं तथा अपने सभी मनोरथों की सिद्धि हो जाती है ॥२०४ -२०६॥